किसानों की एकजुटता से मजबूत होंगे ओबीसी-सासंद लक्ष्मी नारायण यादव

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मौजूदा समय में कम शब्दों में कहें, तो किसानों की एकजुटता के जरिए ही ओबीसी को मजबूत किया जा सकता है। यह जाना-माना तथ्य है कि ओबीसी समाज मूल रूप से खेती पर ही आधारित है, और अगर खेती से जुड़े मसलों को ढंग से उठाया जाए तो इसका फायदा ओबीसी समाज को मिलना तय है।
पिछले कुछ समय से यह देखा जा रहा है कि ओबीसी समुदाय कई मुद्दों पर मुखर तो हुआ है, लेकिन अपने बुनियादी मुद्दों को वह पर्याप्त महत्व नही दे रहा है। एक समय राजनीति के केंद्र में किसान ही होते थे, लेकिन समय के साथ-साथ हालात में बदलाव आया है, और अब किसानों की बातें केवल कर्जमाफी जैसी मांग के जरिए ही हो पाती हैं, जो कि चिंताजनक बात है।
वास्तव में किसानों का आर्थिक रूप से मजबूत किया जाए तो पूरे देश की अर्थव्यवस्था आत्म-निर्भर तरीके से मजबूत होती है। इस बारे में कुछ उपाय गंभीरता से करने और अपनाने की जरूरत है।
मौसम की अनिश्चितता को देखते हुए अब यह भी तय हो चुका है कि किसान केवल खेती पर निर्भर नहीं रह सकते। किसानों को किसानी से जुड़ा कोई न कोई सहायक पेशा भी अपनाने की जरूरत है। इसके लिए पशुपालन और दुग्ध उत्पादन तो हमेशा से ही महत्वपूर्ण कार्य रहा है।
किसानों को सरकार से मांग करने और लड़ने के साथ-साथ अपनी आर्थिक सशक्तिकरण के लिए अच्छी किस्म के जानवर पालने जरूरी हैं। इससे उनके पास एक नियमित आमदनी हमेशा बनी रहती है और वो इस स्थिति में होते हैं कि अगर किसी समय उनकी फसल के सही दाम नहीं मिल रहे हैं, तो वो अपनी फसल को कुछ समय बाद बेचने का फैसला कर सकते हैं। आज भी यही होता है कि किसी खाद्य उत्पाद के दाम फसल बिक्री के समय तो एकदम गिर जाते हैं, जिससे किसानों को नुकसान हो जाता है। वहीं, अगर वो फसल भंडारण करके कुछ समय बाद फसल बेचें तो उन्हें अच्छे दाम मिलते हैं।
दुग्ध उत्पादन और पशुपालन के अलावा, एक दूसरा उपाय सब्जियों के उत्पादन का भी है। कुछ किसान जातियाँ तो सब्जी उत्पादन को नियमित खेती के रूप में अपनाती हैं, लेकिन ऐसा बड़े पैमाने पर नहीं हो रहा है। मौसमी सब्जियों के उत्पादन से भी किसानों को नियमित आमदनी मिलती है और उनके दैनिक इस्तेमाल की खाद्य सामग्रियां भी उन्हें घर पर ही मौजूद मिल जाती हैं।
सामान्य तौर पर किसान की आर्थिक जरूरतें सीमित होती हैं। अगर उन्हें दूध और सब्जी के मामले में आत्म-निर्भरता हासिल हो तो वो कर्ज के जाल में फँसने से बच जाते हैं, और आमतौर पर अपनी आजीविका कठिन समय में भी कमा पाने में सफल रहते हैं।
किसानों को इसके साथ ही, कुछ नए किस्म की खेती करने पर भी ध्यान देना चाहिए। मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में सरकारी सहयोग से रेशम के उत्पादन की सफल कोशिश हुई है। इस तरह से किसान साल में तीन से लेकर चार फसलें तक ले रहे हैं जिन्हें सरकार खरीद लेती है। अगर मौसम विपरीत रहा और एकाध फसल बारिश के कारण चौपट भी हो जाती है तो भी किसान को ज्यादा दिक्कत नहीं होती क्योंकि उसके पास साल में तीन-चार फसलें लेने का विकल्प रहता है।
मध्य प्रदेश में होशंगाबाद में रेशम उत्पादक किसान इसका पूरा फायदा उठा रहे हैं। सरकारी योजनाओं की ठीक से जानकारी लेकर इस इलाके के करीब १२५ गाँवों के किसानों ने अपनी तकदीर संवार ली है। इस समय पूरे प्रदेश के रेशम उत्पादन का ७० फीसदी केवल होशंगाबाद से हो रहा है। कई किसान तो साल में पाँच-पाँच लाख रुपए तक की आय अर्जित कर रहे हैं जबकि पिछले कई सालों से प्रदेश या तो सूखा पीड़ित रहता है या अतिवृष्टि-अल्पवृष्टि से पीड़ित रहता है।
किसानों को उत्पादन की नई तकनीकों पर भी ध्यान देना चाहिए। कर्नाटक में जहाँ परंपरागत तरीके से रेशम उत्पादन होता है, वहीं मध्य प्रदेश के किसानों ने इसकी नई तकनीक अपनाई है। होशंगाबाद, बैतूल और हरदा के इलाकों में मलबरी और मूगा रेशम के उत्पादन पर जोर दिया गया है।
होशंगाबाद और आसपास के इलाके के रेशम की अच्छी क्वालिटी को देखते हुए अब इसके अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचने की कोशिश की जा रही है। अगर ये संभव हो सका तो देखते ही देखते पूरे इलाके का कायाकल्प हो जाएगा। इसका सबसे ज्यादा फायदा तो ओबीसी को ही होना है।
वास्तव में ओबीसी को जातिगत समुदाय के साथ-साथ व्यावसायिक एकता के तौर पर भी देखने की जरूरत है। ऐसा पाया गया है कि ओबीसी के नाम पर सरकारें योजनाएं चलाने से बचती हैं या जो योजनाएं हैं उनका ढंग से क्रियान्वयन नहीं करती। ऐसे में पेशे के नाम पर सरकारों से योजनाएँ बनवाना और उन पर अमल कराना ज्यादा आसान होता है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि दुग्ध उत्पादन, कृषि उत्पादन आदि से जुड़ी योजनाएँ मूल रूप से ओबीसी जातियों के ही काम आती हैं।
वास्तव में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे राज्यों में सशक्त ओबीसी लॉबी इसलिए ही नहीं बन पा रही है क्योंकि किसान आर्थिक रूप से मजबूत नहीं है। यही कारण है कि इन राज्यों में आरक्षण की नीति भी ढंग से लागू नहीं हो पा रही है क्योंकि गरीब ओबीसी समुदाय किसी तरह का आंदोलन करने की स्थिति में ही नहीं होता।
मैंने अपने ५० साल के राजनीतिक जीवन में हमेशा ओबीसी को यही संदेश देने और समझाने की कोशिश की है। अपने इलाके सागर में बहुत हद तक मुझे सफलता भी मिली है। लोकसभा में भी मैंने यही मुद्दे बार-बार उठाए हैं, और किसानों के लिए सहायक आजीविका के साधन उपलब्ध हों, ये माँग की है।
राजनीति आजकल यही रूप ले चुकी है कि ताकतवर समुदाय की ही बात सरकार और मीडिया को सुनाई देती है। ताकतवर का वोट न कोई खरीद पाता है और न कोई छीन पाता है। ओबीसी आर्थिक रूप से मजबूत और आत्मनिर्भर होंगे तो सत्तारूढ़ दल भी उन्हें महत्व देगा और नही देता है तो वो नया विकल्प भी खड़ा कर सकते हैं, और पहले से मौजूद विकल्प को सहयोग देकर उसे भी मजबूत कर सकते हैं।
एक बात और मैं लोकसभा सांसद के तौर पर भी कहना चाहता हूँ। ओबीसी समुदाय को अपने हितों के लिए, अपने मुद्दों को उठाने के लिए किसी खास दल के नेताओं और जनप्रतिनिधियों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। सांसद या विधायक एक बार चुने जाने के बाद पूरे क्षेत्र का और पूरे समाज का प्रतिनिधि हो जाता है। राजनीतिक तौर पर आप उसके साथ रहे हों या न रहे हों, लेकिन आपके हितों को आवाज देना उसका दायित्व होता है और अक्सर सांसद-विधायक ये काम करने को तैयार रहते ही हैं।
आरक्षण का मुद्दा हो, किसानों का मुद्दा हो या पुलिस प्रताड़ना का मुद्दा हो- कोई भी मुद्दा हो, इसके लिए ओबीसी समुदाय को हर दल के ओबीसी सांसद या विधायक के पास जाना चाहिए और उन्हें अपनी बात समझानी चाहिए। अक्सर सत्तारूढ़ दल के सांसद या विधायक उनके ज्यादा मददगार हो सकते हैं, इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए।

लक्ष्मी नारायण यादव
(लोकसभा सांसद, संपर्क ४, विंडसर प्लेस, नई दिल्ली-01)